कविता ढह रही है
अंतर्मन में
शब्द चीख रही है
मन मन में ।।
क्यों मैं लिखी जाती
क्यों मैं पढी जाती
क्यों मैं छपती जाती
क्यों मैं गाँव शहर बिकती जाती ।।
आग जल रही
मेरी अक्षर अक्षर में
भस्म हो रही
होकर दरबदर मैं ।।
मैं क्यों
रस बंध छंद गंध
रास रंग प्यास अंग
में बहती आयी
क्या थी मैं
और क्या से क्या तक
हो गयी मैं ।।
मेरा रचियता
अपना नाम लिखते लिखते
दफन हो गया
मुझको देकर आवाज
खुद कैद हो गया ।।
वो भी
व्यंग्य हास्य रचनात्मक
तक मुझको फंसा गया
जाने कैसा रचा दिया मुझे
न समाज हीं बचा पाई
न स्वंय हीं बच पाई ।।
प्राण देकर शरिर ले गया
मेरे अस्तित्व पर
यह कैसा सवाल खङा कर गया ।।
#अनंत