सदियां अटक गयीं
राम तो निकट थे,
कृष्ण के रूप भी
ममत्व के पास थे।
निर्भय मनुष्य में
आशा अधिक शेष थी,
टूट कर जो जिया
वही तो मनुष्य है।
सूर्य से छटक कर
ग्रह अनेक बन गये,
मनुज के प्रताप के
अवशेष तो छिटक गये।
सनातन तो वृक्ष है
शेष तो डाल हैं,
वाणी के प्रताप में
रूका हुआ मनुष्य है।
अभय दान नहीं है
परिवर्तन अभिन्न है,
प्रज्वलित अग्नि में
यज्ञ तो प्रमाण है।
* महेश रौतेला