जब लेखक के जीते जी उसके लेखन का कोई प्रभाव नहीं है तो यह कैसे मान लिया जाए कि बरसों बाद उसका लिखा समाज के लिए विद्युत वाहक का कार्य करेगा। ऐसा आत्मविश्वास आश्चर्यजनक है जो यह मानता है कि आज भले धूर्त प्रकाशकों, कुटिल संपादकों का बोलबाला और गंभीर पाठकों का टोटा हो परंतु भविष्य में कभी उसके लेखन का मूल्यांकन होगा। अकेले किसी एकांत कोने को तलाश कर पुस्तक पढ़ने वाला निश्चल हृदय पाठक भले विलुप्त नहीं हुआ है परंतु संकटग्रस्त प्रजाति अवश्य हो गया है। धंधा बस धर्म के नाम पर ही नहीं होता है, साहित्य के नाम पर भी कारोबार चलता है। गुटबाजी न केवल प्रचलित है बल्कि सम्मानपूर्वक स्वीकार्य भी है। तथाकथित साहित्यिक बैठकों, मठों आदि से दूर एकांत सृजन करने वाले हाशिये पर हैं। केवल लेखन के बल पर साहित्य में पहचान बनाने के प्रयास पर हँसने वालों की कमी नहीं है। ज्यादातर लोगों के पास हर काम के लिए वक्त निकल जाता है पर पढ़ने के लिए समय नहीं निकल पाता। हर साहित्यिक रचना उस गुमनाम, अज्ञात और निर्मल हृदय पाठक को समर्पित हो जिसने पढ़ने के शौक को बड़े जतन से सहेज कर रखा है। बाकी लोग तो बस साहित्य के नाम पर कोई जुगत लगाने या एजेंडा चलाने की खातिर हैं।