शीर्षक: पछतावा
कहाँ खत्म होती है जिंदगी की गुत्थियाँ
मुश्किल है सुलझनी ये कर्मों की रस्सियां
बंधन बहुतेरे इंसानी जीवन को सदा घेरे
मोह की मदिरा में बहते रहते मन-रँग सारे
रसीली चाहते अंतहीन दूर तक सफर करती
वजूद की तलाश में कलह की डगर पर चलती
समय की पतवार न होती अगर इतनी भारी
इंसानी चेहरों में न रह जाती जरा भी खुद्दारी
सच का रंग सफेद, झूठ तो रंगों का खिलाड़ी
नये लुत्फ की हसरते जो न समझे वो घोर अनाड़ी
सोच नहीं सही तो कुछ भी तो होता सही नहीं
वक्त तो अब भी वही हम ही तो कहीं सही नहीं
बदल जाना ही श्रेयस्कर, न बदले तो हम नहीं
आभास हर दुर्घटना, आगे पछतावे की कमी नहीं
✍️ कमल भंसाली