आँखों में बातों में भीड़ में ,
अकेले में साँसों संग,दुकेले में
पूरब में ,पश्चिम में
सब जगह ,सब ओर
झाँक-झाँक देखा मैंने
कहीं न मिला --
हाथों से फिसला सा
आँखों में पिघला सा
साँसों में बंद कहीं
फिर भी स्वछंद कहीं
घरवाले ,बेघर सा
जीवन या मरघट सा --
सब जगह ,सब ओर
ताक-ताक देखा
मैंने कहीं न मिला ---
गलियों की ख़ाकों में
दीन -हीन फाँकों में
बंसी की तानों में
भँवरे के गानों में
खिलती सी कलियों में
निर्मम सी गलियों में
उत्तर में ,दक्खिन में
सब जगह ,सब छोर --
पात-पात देखा मैंने --
कहीं न मिला ---
मेरा मैं ---!!
डॉ.प्रणव भारती