जिन्दगी कुछ मेरी थी

जिन्दगी कुछ मेरी थी
जिन्दगी कुछ तेरी थी,
साथ-साथ प्यार करती थी
क्षण-क्षण संसार रच देती थी,
कुछ गंगा जल सी बहती थी
कुछ सूख कर मर जाती थी,
दूर तक महकती थी
निकट अहसास बांटती थी,
अँधेरों को बदलती थी
उजाला समेटती थी,
दौड़ने को राह बनाती थी
उड़ने को हवाई हो जाती थी,
संकट में मोर्चा लेती थी
शान्ति में विश्वास रखती थी,
रामायण से निकलते- निकलते
महाभारत में फँस जाती थी,
गालियों के असहज ताप पर
सुदर्शन चक्र चला देती थी,
जिन्दगी कुछ मेरी थी
जिन्दगी कुछ तेरी थी।

तुम्हें पहिचानती थी
मुझे जानती थी,
किसी की विश्वास थी
किसी का संताप थी,
जहाँ-जहाँ से निकलती थी
वहाँ अपनी दृष्टि रख जाती थी,
बिखरे बालों सी
कभी काली,कभी श्वेत लगती थी,
जिन्दगी हमारे बीच नाचती थी
कहते-सुनते चुप हो जाती थी,
जिन्दगी कुछ मेरी थी
जिन्दगी कुछ तेरी थी।

जिन्दगी जब अजनबी थी
प्रश्नों नहीं पूछती थी,
जब-तब किसी कदम को
साँप बन डस लेती थी,
इस पार से उस पार तक
कभी अमृत पिला देती थी,
विष की आदी थी
अमरत्व की आकांक्षी थी,
हमारे पड़ोस से
अनजाने रोटी उठा लाती थी,
काले कौवे को भी
प्रसाद दे आती थी,
बहुत विचित्र थी
कहा- अनकहा कह जाती थी,
हमारे बीच थी
कभी गहरी नींद में थी,
जिन्दगी कुछ मेरी थी
जिन्दगी कुछ तेरी थी।

* महेश रौतेला

Hindi Poem by महेश रौतेला : 111756217

The best sellers write on Matrubharti, do you?

Start Writing Now