एक धागा उलझ जाने पर हम कितनी कोशिश करते है कि सुलज जाए। कही बार सुलझ भी जाता है पर ज्यादा उलझ जाने पर हम कितनी भी कोशिश कर ले हो होता ही नहीं । ऐसे ही जीवन में भी होता ही है। उलझे हुए रिश्ते को कभी सुलझ ता ही नई, और वो सुलझ जाए तो पहले जैसा कभी नई बन पाता। दरार कही ना कही होती ही है। माना इसे ही जीवन की दौर कहते है। पर ज्यादा दरार हो जाए तो वो ना हो वहीं बेहतर होता है। छोटी मोटी उलजने आती रहती है। वो सुलझ जाए समझकर तो वो और आसान हो जाता है। लेकिन सामने कोई भी ही हो समझ ना चाहिए।

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