"अरे हमरा चप्पल कहाँ है नया वाला? मिल ही नहीं रहा। कहाँ फेंकी हो?" सुशांत ने चिल्लाते हुए पूछा।
"देवर जी पहन के गए हैं।" महोबा ने सहमते हुए कहा।
"क्यों? अपना काहें नहीं पहना वो?" सुशांत बुरी तरह से चीख रहा था।
"उनका वाला शायद कहीं खो गया है। एक ही पैर का था, जो वहाँ उस कोने में रखे हैं। तबही से आप वाला पहन कर कहीं भी जाते हैं।"
"अरे ससुरा पगला भी न।" सुशांत ने सुधांशु पर अफ़सोस जताते हुए उस तरफ बढ़ा जहाँ चप्पल का एक पैर पड़ा हुआ था। धूल में सना हुआ था। सुशांत ने उसे उठाया और मुस्कुराते हुए उसे देखते हुए महोबा की तरफ देखा और उसी से उसकी धुनाई शुरू कर दी।
"तुम उसको समझा नहीं सकती थी? हाँ? और हमको बताना भी तुमको ज़रूरी नहीं लगा?" सुशांत ने पेट भर कर चीखते हुए पीटने के बाद जैसे ही उस चप्पल को एक तरफ फेंका तो बड़ा गज़ब का संयोग था। वो चप्पल भी उसी कोने पर गिरा जहाँ वो कुल्हाड़ी को टिकाया गया था और बेचारा चप्पल के एक ही वार से धराशायी हो गया।
ये कुल्हाड़ी की किस्मत वाक़ई ख़राब है।
इधर पुलिस स्टेशन में -
"सुशांत के हाथ में वो कलावा है और उसमें वैसे ही घुंघरू के दाने भी जड़े हैं। और अगर वो नहीं हुआ तो और कौन हो सकता है?" इंस्पेक्टर ने पूछा।
"सर, उस चप्पल से भी मिलता-जुलता चप्पल लोगों ने सुधांशु के पैरों में देखा है लेकिन उसके दोनों पैरों में चप्पल है।" कॉन्स्टेबल पांडेय ने कहा।
"कहीं ऐसा तो नहीं वो कलावा वाली चीज़ सुधांशु भी पहनता हो?" कॉन्स्टेबल जयराम ने आशंका जतायी।
"अबे फिर रेप और मर्डर कैसे प्रूफ होगा?" कॉन्स्टेबल चौधरी ने कहा।
"हम्म, सुनो तालाब पर डेरा जमाओ तुम लोग। कुछ भी हो तुरंत खबर करना या एक्शन भी लेना हो तो पीछे मत हटना।" इसके बाद जयराम और चौधरी निकल गए तालाब की तरफ।
और एक दिन वो मौका आ ही गया जिसका सब इंतज़ार कर ही रहे थे। तालाब पर एक दिन जब कोई लड़की नहा रही थी, सुधांशु उसे एक पेड़ की ओट से देख रहा था। नज़र की भूख बढ़ जाए तो इंसान थोड़ी जल्दी मचा देता है। जैसे ही वो नहाकर निकलने को सोचती है वो देख लेती है कि सुधांशु ने उसके कपड़े उठा लिए हैं।
उसने हाथ जोड़ा और गिड़गिड़ाने लगी। सुधांशु ने अपनी हवस से भरे मुस्कान को बिखेर कर कहा कि आकर ले लो कपड़े। कहीं कोई नज़र नहीं आ रहा था इसलिए उसे लगा शायद यही एक रास्ता भी है। वो धीरे-धीरे पानी से बाहर निकलने के लिए बढ़ने लगी। आँखों से आँसू बह रहे थे या पानी की वजह से भीगे थे कहना मुश्किल था। हाँ पेटीकोट ज़रूर भीगा था और अपने हाथों से वो खुद को ढक कर बाहर आने की कोशिश कर रही थी। लेकिन भूख में इतना धैर्य कहाँ होता है। उसने झट से बढ़कर उसके पेटीकोट को खींचा और वो एकदम से बिना कपड़ों के थी। (क्रमशः)

Hindi Story by Abhilekh Dwivedi : 111750549

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