हझारों ख्वाहिशें ऍसी कि हर ख्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मिरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
कहां मयखाने का दरवाजा 'गालिब'और कहां वाइ'ज
पर इतना जानते है कल वो था कि हम निकले
रहिए अब ऍसि जगह चल कर जहाम कोई न हो
हम-सुखन कोई और न हो और हम-जबां कोई न हो
बोज वो से गिरा है कि उठाए न उठे
काम वो आन पडा है कि बनाए न बने
ईश्क पर जोर नहीं ये वो आतिश गालिब
कि लगाए न लगे और बुझाए न बने