प्रेम की मूर्ति
कोरोना का समय है
सब घरों में बंद बाहर भय है
सहधर्मिणी पहले से अंदर है
कभी नहीं जाती बाहर है
अब बढ़ गया है उसका काम
उसे नहीं मिलता आराम
उसकी आजादी में दखल है
काम उसका नहीं सरल है
उसे लगता है कि सभी रुठे हैं
वास्तव में सभी बैठे हैं
भोजन ‘दो जून’ की जगह
‘चार जून’ वाला हो गया है
दो चाय नहीं चार चाय की होती फरमाइश
सुस्वाद व्यंजन बनाने की है आजमाइश
इससे दूध कभी जाता उफन
सब्जी जलकर हो जाती दफ़न
प्रेस करने से जल जाता कपड़ा
इतने से घर में हो जाता लफडा
फिर वह चीखने-चिल्लाने लगती है
बस साक्षात ‘प्रेम की मूर्ति’ लगती है