बैठे हैं किनारे सागर के,
फिर भी मन कितना प्यासा है।
घनघोर तिमिर चातुर्दिक है,
छाई चहुँ ओर निराशा है।
ये व्यर्थ निवेदन नहीं मेरा,
अकुलाहट भरी पिपासा है।
ऐसा भी गूढ़ नहीं साथी,
माना ये व्यर्थ की आशा है।
तुम पढ़ लो मेरा मौन कभी,
अकिंचन इक अभिलाषा है।
मेरा अंतर्मन जब छू लोगे,
समझोगे जो जिज्ञासा है।
रमा शर्मा 'मानवी'
***************