पहली बार देखा है ऐसा भय का ये व्यापार!
कोई तो हो जो निकाले इससे आर या पार!
अर्थ क्या निकाले जब समझ ही न आता हो!
लग रहा है सबका जीवन जैसे हो बिना सार!
ऐसे ही कैसे कोई कर ले भगवान पर भरोसा?
ज़िंदगी ही जब बन चुकी हो ईश्वर पे उधार!
मारना ही है तो एक बार मे ही तु हमें मार दे।
पर यू तो तू हमे मन से बार बार तो न मार!
कोई अब किसी से प्रेम क्या करे?रहे दूर दूर!
"प्रीत" ही जब सबकी हो चुकी हो तार तार!
-पृथ्वी गोहेल

-Pruthvi Gohel

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