यक्ष प्रश्न की तरह:

महाभारत के "वन पर्व" में युधिष्ठिर से यक्ष कहते हैं कि यदि वे सभी प्रश्नों का उत्तर सही दे देंगे तो उनके भाईयों को ठीक कर देंगे जो सरोवर का पानी पीने से अचेत हो गये थे। सहदेव, नकुल,अर्जुन और भीम ने बिना यक्ष के प्रश्नों का उत्तर दिये सरोवर का जल पिया था और अचेत हो गये थे। प्रश्न थे-

यक्ष: पृथ्वी से भी भारी क्या है? आकाश से भी ऊँचा क्या है?

युधिष्ठिर: माता पृथ्वी से भी भारी है।पिता स्थान आकाश से भी ऊँचा है।

यक्ष: हवा से भी तेज क्या है? 

युधिष्ठिर: मन।

यक्ष: संसार में सबसे बड़ा आश्चर्य क्या है?
युधिष्ठिर: मनुष्य मरता है लेकिन जीवन ऐसे जीता है जैसे वह अमर है। आदि आदि।
युधिष्ठिर ने यक्ष सभी प्रश्नों का उत्तर सही दिया था और उनके भाईयों की चेतना लौट आयी थी। सत्य में अचेतन को चेतन करने की क्षमता होती है।

पुराने समय में विवाह से पहले सामान्यतः पिता लड़की देखने जाते थे। समय बदला और बेटा, लड़की देखने की परंपरा का अभिन्न अंग हो गया। प्रश्न जो लड़की से पूछे जाते वे यक्ष प्रश्न तो नहीं होते पर दुविधा और जिज्ञासा लिये अवश्य होते हैं। मुझे एम. एसी. करने के चार साल बाद एक लड़की देखने जाना था। लड़की डिग्री कालेज में पढ़ती थी। मैंने एक पत्र भेजा कि मैं १३ मई को नैनीताल आऊँगा। मैं रेल से गया,बनारस, लखनऊ होता हुआ काठगोदाम पहुँचा। फिर पहाड़ की यात्रा पूरी की। शाम को नैनीताल पहुँचा। और रात को अपने एक परिचित के यहाँ रूका। मन में प्रश्न घुमड़ते थे लेकिन स्थायी नहीं बन पा रहे थे। मन में हलचल थी। सुबह लगभग १० बजे में लड़कियों के छात्रावास में पहुँच चुका था। तब मैं विचारों में खोया हुआ था न मुझे पहाड़ दिख रहे थे और न नैनीताल की सुन्दर झील। मैंने वहाँ पर खड़ी एक लड़की से पूछा," छाया है क्या?" उसने कहा अभी बुलाती हूँ। छाया आयी। और अतिथि स्थल पर हम बैठ गये। २-३ मिनट ऐसे ही बीत गये। वह आँखें नीचे किये थी। फिर मैंने पूछा," कैसी हो?" उत्तर आया ठीक हूँ। फिर एक प्रश्न आया," किसी काम से आये हो?" मैंने कहा," तुम्हें देखने आया हूँ।" उसने आँखें उठा कर मुझे देखा और फिर आँखें झुका ली। तब तक मेरे सारे प्रश्न सब गायब हो चुके थे। उसने कहा," आजकल मेरे प्रैक्टिकल चल रहे हैं।पता नहीं परीक्षाएं कैसी होंगी?" मैंने सत्यवादी की तरह कहा," अच्छी होंगी।" कुछ देर सन्नाटा छाया रहा। फिर मैंने पूछा," चलूँ!" उसने गर्दन हिलायी। हम उठे और वह छात्रावास के छोर पर स्थित तिराहे तक छोड़ने आयी। तभी मेरे मुँह से निकला," फिर कब मिलेंगे?" उसने कहा," मुझे क्या पता?" चढ़ाई चढ़ते हुये, मैं कालेज में अपने शिक्षकों से मिलने आ गया।उनके साथ चाय पी।पुराने दिन उछल-कूद करते इधर-उधर होते रहे। मन बीच -बीच में छात्रावास में जा, वहीं ठहर जा रहा था। समय बीतता गया। एक साल बाद लखनऊ से मेरे दोस्त का पत्र आया। लिखा था," छाया मिली थी। तुम्हारे बारे में पूछ रही थी।"

* महेश रौतेला

Hindi Story by महेश रौतेला : 111660676

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