वो फूल सी बेटी,
अपने सपनों को लिए बैठी थी।
अरमानों के पंख लिए,
वो उड़ान को बड़ी आतुर थी।
नकली दुनिया में आगे,
तो कई मुकाम थे उसने पाए।
उसकी मेहनत ही तो थी,
जो वो ख्वाब पूरा थी कर पाई।
मिली उसको नौकरी,
देर रात को घर पहुंचती थी।
थी बड़ी शालीन सी,
देसी कपड़े पहना करती थी।
हमेशा थी वो खुश रहती,
मां बाप का सहारा बन गई।
ना जाने किसकी नजर,
उसकी खुशियों को लग गई।
एक रात काली सी,
ना जाने कैसी घड़ी थी अाई।
एक अकेले सफर ने,
उसकी ज़िन्दगी खत्म कर डाली।
वो सवार थी एक बस में,
जिसमे बैठे थे कुछ अनजाने।
उसको अकेला देख कर,
टूट पड़े वो सभी दरिंदे।
बारी बारी उन हैवानों ने,
उस नारी कि अस्मत को लुटा।
उसने कितना पुकारा था,
पर किसी ने नहीं था उसको सुना।
अगले दिन उस कन्या के,
मा बाप जब थाने में पहुंचे।
तब उनको पता चला,
दरिंदगी का आलम उबला था।
सवाल ये करता कवि शुभम्,
क्या उस नारी की गलती थी?
इस पुरानी सोच में सोचो,
कितनी बेटियां यूं बिखरी।
नारी है कोई उपभोग नहीं,
कब ये समाज समझेगा?
ना जाने बुरी मानसिकता,
और कितना नीचा होगा?
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