सृजन की मिट्टी से उपजा
चाक पर साकार हुआ
भट्ठी में फिर तप कर के
दृढ़ मेरा आकार हुआ

मिट्टी की सोधीं ख़ुशबू लेकर
जग की प्यास बुझाता हूँ
मिट्टी ही तन मिट्टी जीवन
जग में मैं कुल्हड़ कहलाता हूँ

अधरों को छूकर के मैं
मन की प्यास बुझाता हूँ
लुटता हूँ हर बार यहाँ
हर बार मैं तोड़ा जाता हूँ

किस्सा मेरा इतना सा है
इतिहास यही है
इस निष्ठुर जग से मुझको
कोई आस नहीं है

मिट्टी हूँ, फिर एक दिन
मिट्टी में मिलना ही है
हर कुल्हड़ को इसी भाँति
बनना और बिखरना ही है

अभिनव सिंह "सौरभ"

Hindi Poem by Abhinav Singh : 111522540
Abhinav Singh 4 years ago

शुक्रिया 🙏

shekhar kharadi Idriya 4 years ago

अत्यंत सुंदर रचना..

The best sellers write on Matrubharti, do you?

Start Writing Now