सुबह से दोपहर! दोपहर से शाम! और शाम से रात हो जाती है यह कम्बख्त नींद क्यों नहिं आती है?



अकेलेपन में आंखे थोड़ी नम हो जाती है! जिंदगी रवि की तरह युही ढ़लती जाती है। सुबह से दोपहर! दोपहर से शाम! और शाम से रात हो जाती है कमबख्त नींद क्यों नहिं आती है?





संसार का यही नियम है जो आया है वह जाएगा। फिर भी मृत्यु के नाम पे काया डगमगा जाती है। बचपन से जवानी! जवानी से जिंदगी बुढ़ापे तक आ जाती है! परंतु, शिकायत वही की वही है कम्बख्त नींद क्यों नहिं आती है?



यु तोह परेशानी सबको है संसार मैं पर प्रेममें धोखा मिलने पर दिलमें वह आग सी जल जाती है। यादें साथ हो तोह आंखे भी थोड़ा पानी बहाती है। परंतु, अंत मैं यही सवाल रह गया कम्बख्त यह नींद क्यों नहिं आती है?





किससे बाँटू यह दर्द मेरा ए खुदा? अंधेरे में पुरी दुनिया ढल जाती है। मैं कुरसी पर बैठा यही सोचे जा रहा हूं कम्बख्त यह नींद क्यों नहिं आती है?



-रिट्स

Hindi Shayri by Ritik barot : 111495081

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