*एक याद*
कभी नेनुआ (तुरई)टाटी(छप्पर) पर चढ़ के रसोई के दो महीने का इंतज़ाम कर देता था। कभी खपरैल की छत पर चढ़ी लौकी महीना भर निकाल देती थी। कभी बैसाख में दाल और भतुआ(पेठा) से बनाई सूखी कोहड़ौरी (बड़ी) सावन-भादो की सब्जी का खर्चा निकाल देती थी।
वो दिन थे जब सब्जी पर खर्चा पता तक नहीं चलता था। देशी टमाटर और मूली जाड़े के सीजन में भौकाल के साथ आते थे लेकिन खिचड़ी आते-आते उनकी इज्जत घर-जमाई जैसी हो जाती थी। तब जीडीपी का अंकगणितीय करिश्मा नहीं था। ये सब्जियाँ सर्वसुलभ और हर रसोई का हिस्सा थीं। लोहे की कड़ाही में किसी के घर रसेदार सब्जी पके, तो गाँव के डीह बाबा(स्थानीय देवता) तक गमक जाती थी। संझा को रेडियो पर चौपाल और आकाशवाणी के सुलझे हुए समाचारों से दिन रुखसत लेता था। रातें बड़ी होती थीं। दुआर पर कोई पुरनिया (बुजुर्ग) आल्हा छेड़ देता था तो मानों कोई सिनेमा चल गया हो। किसान लोगों में कर्ज का फैशन नहीं था। फिर बच्चे बड़े होने लगे.. बच्चियाँ भी बड़ी होने लगीं। बच्चे सरकारी नौकरी पाते ही अंग्रेजी इत्र लगाने लगे। बच्चियों के पापा सरकारी नौकरी वाले दामाद में नारायण का रूप देखने लगे।
अब दीवाने किसान अपनी बेटियों के लिए खेत बेचने के लिए तैयार थे। बेटी गाँव से रुखसत हुई.. पापा का कान पेरने वाला रेडियो, साजन की टाटा स्काई वाली एलईडी के सामने फीका पड़ चुका था। अब आँगन में नेनुआ का बीया छीटकर मड़ई पर उसकी लताएँ चढ़ाने वाली बिटिया पिया के ढाई बीएचके की बालकनी के गमले में पौधे लगाने लगी, और सब्जियाँ मंहँगी हो गईं।
बहुत पुरानी यादें ताज़ा हो गयीं। सच में उस समय सब्जी पर कुछ भी खर्च नहीं हो पाता था। जिसके पास नहीं होता उसका भी काम चल जाता था। दही-मट्ठा का भरमार था। सबका काम चलता था। मटर, गन्ना, गुड़ सबके लिए इफरात रहता था। सबसे बड़ी बात तो यह थी कि आपसी मनमुटाव रहते हुए भी अगाध प्रेम रहता था। आज हर आदमी एक दूसरे को शंका की निगाह से देख रहा है।