चिड़िया नहीं चहकती,
गायें नहीं मचलती,
सर्द हवा की सिहरन,
कोहरा में सांसे जमती।
क्षितिज की लाली धुँधली,
सुबह में शाम दिखती,
जीवों की हलचल थमती,
बर्फ़ सी ठंडक पड़ती ।
जाड़े में सिमटी दुबकी,
ग़रीबों की क़ातिल रातें,
रोटी भी नहीं मयस्सर,
फाँके में रातें कटती।
लिहाफ़ है ना चादर,
ना कम्बल ना स्वेटर,
अलाव की आग जीवन,
केथरी में गर्मी मिलती।
गाँवों की ऐसी मुसीबत,
निकट से मैंने देखी,
कड़ाके की ठंड का कंपन,
मुझे ब्लोअर में भी मिलती।
✍🏽मुक्तेश्वर मुकेश👁

Hindi Poem by Mukteshwar Prasad Singh : 111322181

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