दिसंबर चल पड़ा घर से सुना है पहुँचने को है,
मगर इस बार कुछ यूं है के मैं मिलना नही चाहता
सितमगर से, मेरा मतलब दिसंबर से,
कभी अज़ूरदा करता था जाता दिसंबर भी ,
मगर अब के बरस हमदम बहुत ही ख़ौफ़ आता है,
मुझे आते दिसंबर से दिसंबर जो कभी मुझको,
बहुत मेहबूब लगता था वही शफ़ाक़ लगता है,
बहुत बेबाक़ लगता है,हां इस संग दिल महीने से
मुझे अबके नही मिलना,क़सम उसकी नही मिलना,
मगर सुनता हूँ ये भी में के इस ज़ालिम महीने को
कोई भी रोक न पाया न आने से,न जाने से
सदायें ये नही सुनता,वफ़ाएँ ये नही करता,
ये करता है फ़क़्त इतना सज़ाए सौंप जाता है,
शफ़ाक़-सूरज डूबने के बाद कि लाल रोशनी
अज़ूरदा-पीड़ित,नाराज़,ग़मगीन,सताया हुआ