◆◆◆ ग़ज़ल◆◆◆
वक़्त की कर ले मिन्नत हज़ार आदमी
साँस कब ले सका है उधार आदमी
अपनी कमियों से जो सीखता ही रहे
एक दिन वो बने शाहकार* आदमी (masterpiece)
खोना चाहे न जाने कहाँ भीड़ में
ख़ुद से ही होना चाहे फ़रार आदमी
देखने को हक़ीक़त तेरी ए क़मर* (क़मर:चाँद)
चल पड़ा आसमां के भी पार आदमी
सेल्फियां खींचता रोज़ फिल्टर लगा
झूठी तारीफ़ का ये शिकार आदमी
सिर से पैरों तलक होगी पॉलिश चढ़ी
गर ज़ियादा लगे आबदार* आदमी (आब: चमक)
करके जायेंगे दुनिया से ये देह दान
चाहिए फिर 'सिफ़र' को न चार आदमी
#अंजलि सिफ़र