मेरे घर का आईना

मेरे घर का आईना भी
कितना झूठ बोलता है
आज खड़ी हुई इसके सामने
तो दिखाने लगा मुझे
मेरे बालों से झांकती
हलकी सी चाँदी
चेहरे पर उभरती
अनुभव की रेखाएं
हल्का रंग बदलती आँखे
उनके आस-पास बनते
काले से घेरे
चेहरे की परिपक्वता
मगर.......
कहाँ परिपक्व हुई मैं अभी
अब भी कभी-कभी जागता है
मेरे अंदर का बच्चा
जो करना चाहता है
बच्चों जैसी नादानियां
जिसमे छुपी हैं अब भी
बच्चों जैसी शरारतें
खेलना चाहता है मिटटी में
फिर उन्हीं दोस्तों संग
वहीँ झगड़ना, वहीँ खेलना
तितलियों को पकड़ना
मोर के पंखों को
किताबों में संजोना
न परवाह समय की
न फ़िक्र दुनियादारी की
बस चाहता है एक
उन्मुक्त सा जीवन जीना
बताओ........
कहाँ परिपक्व हुई मैं अभी
कितना झूठ बोलता है न
मेरे घर का आईना...
प्रिया

Hindi Poem by Priya Vachhani : 111186370
Priya Vachhani 5 years ago

आभार नमिता जी

Namita Gupta 5 years ago

सच ही तो है

The best sellers write on Matrubharti, do you?

Start Writing Now