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#Kavyotsav2
चुनावी कोलाहल
शहर में चारों ओर बढता, ये कैसा कोलाहल है।
अन्तस् को बेधता न जाने, ये कैसा हलाहल है।
सर्वत्र बिगुल बजा हैं, चुनावी रणभेरी का।
बगुला भगत जैसे नेताओ की ,अठखेली का।
वाणी इनकी सदैव ही, जनता से खेली है।
जोश , आक्रोश और वायदे, तो इनकी चेली है।
आजादी के बाद की लिखी, ये कैसी इबारत है।
लोकतन्त्र के नाम पर खडी ,ये कैसी इमारत है।
न मुद्दा है कोई, न समाज हित की नीति है।
स्वार्थ , हिंसा, बडबोलापन , अपमान ही इनकी रीति है।
सीटों का गणित, समाजहित पर भारी है।
नित नये समीकरणों में फँसना, जनता की लाचारी है।
अब समाज गौण और आदमी प्रमुख है।
मुद्दा तो है साहब , समाज का न सही नाम ही सम्मुख है।
समय के साथ जनादेश की ,परिभाषा बदल रही है।
जनता जनतंत्र का मूल्यांकन कर, विचार बदल रही है।
हो चाहे मानवीय समाज के चारों ओर,कितना भी कोलाहल।
अब न अन्तस् को,--------------- बेध पाएगा ये हलाहल।
अब जनता ने ,मन्थन करने की ठानी हैं।
अपना मत विवेक से देने को, भृकुटी तानी है।