#काव्योत्सव
विषय : #अध्यात्म
अन्तिम यात्रा के साज श्रॄंगार..............
यात्रा कोई सी हो
या कहीं की भी हो
करनी ही पड़ जाती है
तैयारियाँ बहुत सारी !
जब छोटे थे खिलौने
सम्हालते ,थोड़े बड़े हुए
तो थामा किताबों का हाथ
बस यूँ ही बदलते रहे
यात्रा के सरंजाम .....
अब जब अंतिम यात्रा की ,
करनी है तैयारी ,विचारों ने
उठाया संशय का बवंडर !
सबसे पहले सोचा ,ये
अर्थी के लिए सीढ़ी
या कहूँ बाँस की टिकटी,
ये ही क्यों चाहिए .......
शायद इस जहाँ से
उस जहाँ तक की
दूरी है कुछ ज्यादा ...
क़दमों में ताकत भी
कम ही बची होगी
परम सत्ता से मिलने को
सत्कर्मों की सीढ़ी
की जरूरत भी होगी !
ये बेदाग़ सा कफ़न
क्या इसलिए कि
सारा कलुष ,सारा विद्वेष
यहीं छूट जाए ,साथ हो
बस मन-प्राण निर्मल
फूलों के श्रृंगार में
सुवासित हो सोलह श्रृंगार !
अँधेरे पथ में राह दिखाने
आगे-आगे बढ़ चले
ले अग्नि का सुगन्धित पात्र !
परम-धाम आ जाने पर
अंतिम स्नान क़रा
अंतिम-यात्रा की ,अंतिम
धूल भी साफ़ कर दी !
सूर्य के अवसान से पहले
अग्नि-दान और कपाल-क्रिया
भी जल्दी कर ,लौट जाना
निभाने दुनिया के दस्तूर !
मैं तो उड़ चलूंगी धुंएँ के
बादल पर सवार ,पीछे
छोड़ अनगिनत यादें ....
आज से सजाती हूँ ,
अपनी बकुचिया ,तुम तो
सामान की तलाश में
हो जाओगे परेशान ....
चलो ,जाते-जाते इतना सा
साथ और निभा जाऊँ
अपनी अंतिम पोटली बना
अपना जाना कुछ तो
सहज बना जाऊँ ...... निवेदिता