कविता - खिड़की
एक दिन मेने, अपनी खिड़की खोली
ठंडी हवाओं का शोर था
मेरी सामने वाली खिड़की में भी
चाँद सा एक चकोर था।
मै मुस्करा रहा था,
वो शरमा रही थी
मै अपने आप को सुलझा रहा था,
और वो अपने चेहरे पर आ रही
झुलफो को सुलझा रही थी
मेरा दिल भी अब इश्क़- ए- दिले चोर था
मेरी सामने वाली खिड़की में भी,
चांद से एक चकोर था
मै उसे देखता रहा
और वो नजरें फेरती रही
इश्क़ का महजब आंखों ही आंखों में तोलती रही
वो मेरी ईद और मै उसका दीवाली वाला माहौल था
मेरी सामने वाली खिड़की में भी,
चाँद सा एक चकोर था
आखिर में उसने हां कर दी,
जिंदगी की एक नई शुरुआत कर दी
अकेली जिंदगी में बहार कर दी,
मोहब्बत से मेरी मुलाकात कर दी।
अब वो मेरी दिल्ली और मै उसका इंदौर था
मेरी सामने वाली खिड़की में भी,
चाँद सा एक चकोर था।
By Author Pawan Singh
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