पथिक और प्रेम का तारा
पथिक
को
रात में अंबर के करोड़ों
टिमटिमाते तारों के मध्य
दिखते हो तुम
बिलकुल एक अलग
चमकते तारे,
उस अँधेरे के राही को
राह दिखाते।
तुम्हें पता नहीं शायद
वह तुम्हें ही देखकर
लगाता है अनुमान
दिशाओं का।
रात के अँधेरे में
टटोलकर बढ़ता,
घुप अंधकार भरी राह में
मार्ग ढूंढ़ता।
रात भर
वह यूँ ही चलता है,
और मार्ग ढूंढ़ते-ढूंढ़ते ही
सुबह हो जाती है।
भोर हो जाने पर
मार्ग ढूंढ़ना भी
आसान होता है
साथ देने वाले भी
मिल जाते हैं,
मगर
दिन के उजाले से
अधिक प्रिय है उसे,
वो अँधियारी रात,
जब तुम उसे साफ दिखाई देते हो।
अंबर में तारों की भीड़ में भी
वह रोज तुम्हें ढूँढ़ लेता है,
तुम्हें ही महसूस करता है।
ठीक उस तरह
जिस तरह
उस दिन सबसे पहले
उसने तुम्हें देखा था
अनायास,
नदी के उस पार के
पेड़ के ठीक ऊपर,
एक अलग आभा से
चमकते सितारे,
मध्य रात्रि में।
तब से वह
प्रतीक्षा करता है तुम्हारी
रोज़ रात्रि में देर तक
तुम्हारी एक झलक को,
यहाँ तक कि
बरसात के मौसम में भी
भीगते,पहुंचकर नदी तट पर
जब बारिश,बूँदों और बिजली में
तुम दिखाई नहीं देते
क्षितिज पर,
तब भी वह
महसूस करता है तुम्हें
बिना तुम्हारे जाने ही।
उसे लगता है
इस जग में
कोई तो है
जो रात के अंधेरे में
उसके साथ चलता है,
उसे राह दिखाता है,
तब भी,
जब और छोड़ देते हैं साथ।
"हम दोनों कभी मिलते हैं नहीं
पर
हम दोनों का है बंधन अटूट"
-यही मानकर,
तुम्हारी हर चीज से
बेख़बर,बेपरवाह
अभी भी तुम्हें
प्रेम करता है,
सुबह के उजाले में
अपने खो जाने तक
पथिक।
योगेंद्र (मौलिक कॉपीराइट रचना)