उस साल जब हम मिले थे
कड़ाके की ठंड के बीच
आँख खोलती धूप थी,
तुम भी चुप थे
मैं भी चुप था,
मन का खोना
शब्द खोने जैसा था,
प्यार की पच्छाई
दीर्घ होती जा रही थी।
आज लगता है
शब्दों का समय से होना,
हमें बाँधता है
क्रान्तियों को आगे ले जाता है,
ईश्वर के मंतव्य को
खुलापन देता है।
अधेड़ सी मेरी उम्र
प्यार के लिखे को,
आज भी देख सकती है
जो अब मनुष्य बन चुका है।
***
* महेश रौतेला