भेंट अंतिम आज प्रियवर!
जाइए, सिर मौर पाएँ।
जब चढ़ें, वर रूप में रथ,
पग न बिल्कुल डगमगाएँ।
‌स्वस्तिमय शुभकामनाएँ!

माँग की ऋजु-रेख भी जब, वक्र सी टेढ़ी लगेगी।
सप्तपद की रीति संभवतः कहीं बेड़ी लगेगी।
चंद्रिका से इस हृदय को 'दग्धता' मिलने लगेगी।
या किसी अल्हड़ हँसी से क्षुब्धता मिलने लगेगी।

संयमित रहना, वचन भरते,
अधर यदि थरथराएँ।
स्वस्तिमय शुभकामनाएँ।

कीजिए निश्चित, कि उत्सव में नहीं बाधा रहेंगी!
अब कभी, मेरी कहीं, सुधियां नहीं, नर्तन करेंगी।
भूलकर मेरी 'दशा' अपनी दिशा पर ध्यान देना।
और अपनी सहचरी को प्रेम देना, मान देना।

अंजुरी थामे किसी के,
कर न किंचित कँपकपाएँ।
स्वस्तिमय शुभकामनाएँ।

याद है जब, खग-युगल पर बाण हम ही छोड़ते थे।
फिर भ्रमर की प्रिय कली को, क्रूरता से तोड़ते थे।
इस कलुषता के कलश को एक दिन तो फूटना था,
कर्म का फल भोगना था, साथ अपना छूटना था।

त्याग मेरे 'प्राण' का भय,
आप अपना 'प्रण' निभाएँ!
स्वस्तिमय शुभकामनाएँ!

Hindi Poem by Jatin Tyagi : 111849519

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