सस्नेह अभिवादन मित्रों

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बेहतर है संशोधन करेंअपने भीतर

माना ,है कीचड़ लगता है भय फँसने का

केवल उसमें फेंकने से पत्थर क्या बचा सकेंगे स्वयं को?

लहुलुहान होते मन मेंपहुँचेगा

काला रक्त--- जो जमेगा जाकर

मस्तिष्क में धड़कनों का बना चूरा,

बिखेर उस कीचड़ में

न कर सकेंगे खेती,

स्नेह की

जिसके बिना वैसे ही

कंगाल हो रहीं दिशाएँ....

स्वीकार करते हुए हर क्षण ---

गांधारी की खोलना पट्टी

बहुत सही है किंतु,

सही नहीं केवल घूरते रहना

ग्लास के ख़ाली हिस्से को

आधा भरा भी तो है

बुझाएँ प्यास और निकल पड़ें

एक नई यात्रा पर

उस ख़ाली ग्लास को

 भरने शुद्ध जल से-----

अपनी भावी संतति हेतु !!

 डॉ  प्रणव भारती

Hindi Poem by Pranava Bharti : 111844054

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