बेटी के अन्तर्मन की आवाज़..


क्या मैं आपको याद हूँ पिताजी?क्या मुझे कभी याद करते हैं आप,क्योंकि मेरे ससुराल में तो मुझे आपको क्षण क्षण याद कराया जाता है कि यही सीखा है बाप के घर में,कुछ नहीं लाई बाप के घर से,बाप के यहाँ भी कभी ऐसा पहना और खाया है,काश ये सब भी बताकर भेजा होता आपने....
लेकिन मैं आपके लिए केवल एक प्रवासी चिड़िया थी जिसे आपके घर केवल कुछ दिन ही रहना था या थी आपके खेतों की खरपतवार जिसे तो एक दिन कटना ही था,क्या मैं सच में याद हूँ आपको शायद नहीं!क्योंकि जीवनपर्यन्त मेरे साथ यही वाक्य चलता रहा....तुम त्रिपाठी जी की बेटी हो ना!इधर उधर मुहल्ले पड़ोस में सबको याद रहा कि मैं आपकी बेटी हूँ तो आप कैसें भूल गए...
माँ को शायद थोड़ी बहुत याद रही हो मेरी लेकिन आपको शायद बिल्कुल नहीं,जब कभी मैं आपके घर आती तो माँ कहती जा पिता बरामदे में बैठें हैं अपने दोस्तों के साथ,तुझे पूछ रहे थे कि कब आई,मैनें उसे देखा नहीं,तब माँ के कहने पर मैं भतीजी के संग गैर मन से आपसे मिलने आती,तब आप अपने दोस्तों से गर्व से कहते....मेरी बेटी है,ससुराल में कुछ भी दुख तकलीफ़ हो हमसे कभी नहीं कहती,सब सहती रहती है,बड़ी अच्छी बेटी है हमारी ,बड़ा मान बनाकर रखा है हमारा अपने ससुराल में...
तब आपके दोस्त कहते...
बेटी!धूप में क्यों खड़ी हो?पैरों में चप्पल भी नहीं,पैर जल जाएंगे...
तब आप गर्व से कहते....
हमारी बेटी है इसे तो सहने की आदत है,
मैं संकोचवश सिर झुकाएं यूँ ही खड़ी रहती तब आप पूछते....
समधी जी ठींक हैं,दमाद जी की मास्टरी कैसी चल रही है और नाती क्यों नहीं आया इस बार....
आपके प्रश्नों से मन आहत होता था क्योकिं उन प्रश्नों में मैं कहीं भी शामिल नहीं होती थी कि बेटी तुम कैसी हो,अच्छा हुआ जो तुम आईँ...
फिर आप सुनाने लगते,अब की बार बारिश नहीं हुई तो गेहूँ की लागत अच्छी ना निकली,ओले पड़े तो सरसों का फूल खेत में ही मर गया,बैल मर गया था.....इत्यादि....इत्यादि....
लेकिन मेरी समस्याओं का क्या?
ये सुनकर मेरी आँखें डबडबा जातीं और मैं आसमान की ओर देखने लगती ,तब भतीजी कहती है बुआ!धूप है भीतर चलो और मैं भीतर चली जाती ......
लेकिन तब मेरा मन चीखकर आपसे पूछना चाहता था कि क्या आपकी सभी समस्याओं की भाँति मैं भी आपके लिए केवल एक समस्या मात्र थी....लेकिन कोई फायदा नहीं क्योंकि अगर मैनें ये पूछा तो उस पल मैं आपकी भद्र बेटी से अभद्र बेटी हो जाऊँगी...
क्योंकि बुआ कहा करती थी कि कब तक बैठाकर रखोगे इसे अपने घर में, भाइयों के लिए कुछ छोड़ेगी या नहीं कि सब चर जाएगी,भाइयों को हाय लगती है ,सो पिता लो सब छोड़ दिया अपने भाइयों के लिए अब हाय नहीं लगेगी,सब उन्हीं का तो है.....बेटी का तो ना उस घर में कुछ है और ना इस घर में कुछ है,कभी तो पढ़ा होता मेरा अन्तर्मन......

समाप्त....
सरोज वर्मा.....

Hindi Thought by Saroj Verma : 111831196
Rakesh Rakesh 4 months ago

बहुत खूब

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