कुछ दिनों से मन बेहद अशांत है, इतना अशांत कोई बगल में खड़ा हो तो शायद उसे इसकी गूंज तक सुनाई दे दे... इस अशांति कोई खास कारण फिलहाल तो मेरे सामने नहीं है बस इन दिनों नदियों से प्रेम बढ़ सा गया है... बह रही नदियां कितनी खूबसूरत हैं, इसकी खूबसूरती का अंदाजा अब जाकर हुआ है मुझे.... मन मे ख्याल भी आता है कि अगर इन्हें बांध दिया जाए तो क्या हो? बांधों पर रुकी नदियां अब मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती... मुझे लगता है जैसे किसी ने इनसे इनकी गति छीन कर इनकी हत्या करने का प्रयास किया है... इनका बंधा होना, इनका रुका होना ही एक दिन इनको उफान पर ले आता है, ये उफान अपने साथ तूफान लेकर आता है जहां सब कुछ तबाह हो जाता है... जरूरी है कि उफान से पहले नदियों को बहने के लिए छोड़ दिया जाए... इन नदियों का बहते रहना उतना ही जरूरी है जितना हमारा सांस लेना... नदियां जब बहती हैं तो खुद में बेहद बदलाव करती हैं, कभी स्वरूप में, कभी आकार में वक्त की जैसी जरूरत होती है ये बिल्कुल वैसी ही ढल जाती हैं... क्या मैं भी आवश्यकतानुसार ढल पाऊंगी?