चंचल मन बिगड़ैल पवन है बार-बार ये रो जाता है

कभी दुपहरी , साँझ कभी फिर घनी रात सा सो जाता है

कभी पलस्तर मन के उखड़ें,कभी लगें पैबंद वहीं पर ,

कभी स्मृतियों के गलियारे में रहे भटकता खो जाता है ।

जाने कितनी-कितनी पीड़ा ढोता रहता है जीवन भर ,

जाने कितने -कितने आंसू पोछा करता है जीवन भर ।

फिर भी मुस्कानों को दिल मे चादर सा फैला देता है ,

आँख मींचकर चादर ताने सबसे छिप सोता रहता है ।

कितने कितने किये जतन पर व्यर्थ रहा सबको बहलाना ,

एक बात ही शाश्वत समझी और वही है 'आना-जाना'।

किसने यूँ दुत्कार दिया है और है 'इसने मिसरी घोली',

फर्क पड़ा क्या मनुआ तुझको बार-बार कहता रहता है ।

तू तो चल अपनी राहों पर,कोई साथ न आये तो क्या?

तू फैला स्नेह की छाया कोई पास न आये तो क्या ?

शिकवे और शिकायत से क्या जीवन में खुशियां आती हैं ?

कोशिश कर ,समझा सकता तो ,जीवन तो बहता रहता है ॥

डॉ प्रणव भारती

Hindi Poem by Pranava Bharti : 111808998
Pranava Bharti 2 years ago

बहुत स्नेहिल धन्यवाद प्रिय शेखर

shekhar kharadi Idriya 2 years ago

चंचल मन का वास्तविक चित्रण तथा गहन, चिंतन शील अभिव्यक्ति...

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