चंचल मन बिगड़ैल पवन है बार-बार ये रो जाता है
कभी दुपहरी , साँझ कभी फिर घनी रात सा सो जाता है
कभी पलस्तर मन के उखड़ें,कभी लगें पैबंद वहीं पर ,
कभी स्मृतियों के गलियारे में रहे भटकता खो जाता है ।
जाने कितनी-कितनी पीड़ा ढोता रहता है जीवन भर ,
जाने कितने -कितने आंसू पोछा करता है जीवन भर ।
फिर भी मुस्कानों को दिल मे चादर सा फैला देता है ,
आँख मींचकर चादर ताने सबसे छिप सोता रहता है ।
कितने कितने किये जतन पर व्यर्थ रहा सबको बहलाना ,
एक बात ही शाश्वत समझी और वही है 'आना-जाना'।
किसने यूँ दुत्कार दिया है और है 'इसने मिसरी घोली',
फर्क पड़ा क्या मनुआ तुझको बार-बार कहता रहता है ।
तू तो चल अपनी राहों पर,कोई साथ न आये तो क्या?
तू फैला स्नेह की छाया कोई पास न आये तो क्या ?
शिकवे और शिकायत से क्या जीवन में खुशियां आती हैं ?
कोशिश कर ,समझा सकता तो ,जीवन तो बहता रहता है ॥
डॉ प्रणव भारती