"कोई होड़ नहीं"


स्त्रियां कब चाहती हैं बराबरी ,
स्त्रियां कब होना चाहती हैं पुरुष सी !
बस खुल कर जीना चाहती हैं,
भर भर लेना चाहती है सांस
खुली हवा में।
उसकी कलसी पर जो
ताला मारा है पितृसत्ता ने ,
वह कलसी वापस चाहती है।
मांगती है कड़ी मेहनत का पूरा मेहताना
अपनी क्षमताओं के कमल खिलाना चाहती है।
स्त्री चाहती है सबको मिले धूप, मिले छांव ,
स्त्री चाहती है हर एक के लिए प्रेम भाव !
चाहती है विकास के निर्णय में
बढ़चढ़ कर भाग लेना ,
ताकि बचा सके जंगल,
छलनी ना हों पर्वत,
ताकि नदियां रहे सदानीरा,
ताकि झूम कर नाचे राधा,मीरा !
वह चाहती है पोंछना हर आंसू,
वह चाहती है जी भर कर हँसते हुए
फफक कर रो लेना !
वह नहीं चाहती किसी युद्ध में,
किसी अहम में
किसी अपने को खोना !
पुरुष की होड़ करना नहीं चाहती,
स्त्री नहीं होना चाहती पुरुष सी !

मुखर

Hindi Poem by कविता मुखर : 111804055
अब ला इलाज हो गए है देव बाबू 2 years ago

अब लाख तेरे दर के दरीचे खुले रहें... आवाज़ मर गयी तो सदायें कहाँ से दूँ

shekhar kharadi Idriya 2 years ago

वास्तविक चित्रण, गहरा, चिंतन शील अभिव्यक्ति....

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