दादाजी--- (रचनाकार - प्रमिला कौशिक)
- - - - - - (14 अप्रैल 2022)
दादाजी आप दादाजी न रहे
आप गांधारी क्यों बन गए ?
धृतराष्ट्र की तो विवशता थी
आप यूँ अंधे क्यों बन गए?
आप रोज़ शाम को बैठकर
सबकी शिकायतें सुनते थे।
प्रेम से सबमें मेल कराकर
निष्पक्ष न्याय तब करते थे।
कितना कुछ घट रहा है घर में
अब क्यों न आप कुछ कहते हैं?
गूँगे अंधे बहरे बनकर अपंग से
किसविध अनाचार यूँ सहते हैं?
दादाजी, पक्षपात करते करते
पापा अब तानाशाह हो गए।
बच्चे तो हम सब हैं उनके ही
क्यों वे एक पक्षधर हो गए ?
भैया का हर दोष माफ़ क्यों ?
मुझको ही पीटा जाता क्यों ?
भैया का हर क़त्ल माफ़ क्यों ?
मेरा घर तोड़ा जाता क्यों ?
काले गोरे में भेदभाव क्यों
लंबे नाटे में भेदभाव क्यों ?
आपस में हैं लड़वाते क्यों ?
सबमें नफ़रत फैलाते क्यों ?
पापा ने दरारें खींची मन में
सब कुछ यहाँ छितर गया है।
कितना सुंदर घर था हमारा
देखो! अब कैसे बिखर गया है।
पापा ने कुछ बेटों के हाथ थमाए
धार्मिक आडंबर के अमोघ अस्त्र।
एक अजान का एक हनुमान का
दोनों ही ओर से चल रहे शस्त्र।
दोनों दिशाओं से आते, टकराकर
काश ये अस्त्र भी निरस्त हो जाते।
किसी का न होता बाल भी बाँका
सब अस्त्र शस्त्र जब पस्त हो जाते।
पापा ने अपनी ही संतानों में
फैलाया जो यह धर्मोन्माद।
शायद वे जान नहीं पाए हैं
कर देगा वह सबको बर्बाद।
अपने ही बच्चों को बताओ भला
कौन पिता यूँ लड़वाता है ?
कैसे कहलाएगा वह इंसान भला
जो अपना ही घर जलवाता है।
दादाजी, आपसे ही थी उम्मीद
नीर क्षीर विवेकी आप ही थे।
कोई भी समस्या आती घर में
सबका समाधान आप ही थे।
पट्टी आँखों पर बाँध कर
यदि अंधे बन जाएँगे आप।
होठों को सी, कानों को ढक
मूक बधिर बन जाएँगे आप।
तो तहस नहस हो जाएगा घर
न पापा बचेंगे, न आप और हम।
तमाशबीन दुनिया करेगी अट्टहास
हमारा खेल ख़त्म और पैसा हजम।
अपंगता का मुखौटा उतारिए
अत्याचारों से हमें उबारिए।
दादाजी फिर से हुंकार भर
शक्ति का मंजर दिखाइए।
विक्रमादित्य के सिंहासन पर
फिर एक बार आप विराजिए।
न्याय प्रिय हैं आप आज भी
संसार को यह बता दीजिए ।।
सबकी खिलखिलाहटों से
घर हमारा फिर गुंजायमान हो।
पहले सी प्रेम सरिता
दिलों में अनवरत प्रवहमान हो।
कानून तोड़ने की हिम्मत न हो
किसी की, कुछ ऐसा वर दो।
महत्व न्याय का परिवार समझे
दादाजी, कुछ ऐसा कर दो।
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