अभिव्यक्ति - प्रमिला कौशिक (17/4/2022)
एक पत्थर की व्यथा
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क्या सुनोगे एक पत्थर की कथा ?
कहना चाहता हूँ मैं अपनी व्यथा ।
मुझे ज़मीन से किसने था उठाया ?
उठा कर यूँ किस पर था चलाया ?
काश! कि मेरी भी होतीं आँखें
और घटना सारी देख मैं पाता।
काश! कि होते कान मेरे भी
और मैं सुन हर पक्ष को पाता।
काश! कि मेरी भी होती ज़ुबान
सब कुछ बयान मैं कर पाता।
काश! कि इतनी ताकत होती
कोई मुझे ज़मीं से उठा न पाता।
देता हर एक की गवाही तब मैं
किससे क्या क्यूँ कहा था किसने ?
बात बढ़ी तो पहले कौन बढ़ा था ?
सबसे पहले मुझे उठाया किसने ?
उठा लेना तो अलग बात थी
पर पहला पत्थर मारा किसने?
कितने पत्थर चले कहाँ कहाँ से ?
फिर क्यों यह कोहराम मच गया ?
कितनों ने कितनों को मारा ?
कौन था घायल कौन बच गया ?
कौन था निर्दोष, कौन था दोषी ?
कौन झूठा कौन कह सच गया ?
जो भी हुआ वह हुआ था यूँ ही
क्योंकि मैं कुछ देख न पाया।
चलता रहा सब कुछ निर्द्वन्द्व
शोर शराबा भी मैं सुन न पाया।
बोलने से भी सच आता सामने
था मूक मैं कुछ बोल भी न पाया।
एहसास बस एक ही हो रहा था
यहाँ से वहाँ मैं फेंका जा रहा था।
एक दूसरे के कंधे पर रख बंदूक
हथियार मुझे बनाया जा रहा था।
किस किस को लगी चोट पता नहीं
पर मैं बार - बार टूटा जा रहा था।। - 2