अशक्त !!
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क्यों करते हैं हम दंगे ---और
मचाते हैं शोर !
क्यों पीटते हैं अपनी आत्मा को
टकराते हैं सिर दीवारों से --और
पागल ठहाके लगते हैं रात -दिन
किसी अजब तलाश में !
भटकते रहते हैं हम--और --
सामने वाली नीली झील में डुबकी लगाकर
पाते हैं केवल मुट्ठी भर रेत ,जो
लपेट देता है हमें आत्मा तक
एक भुरभुरे सच में----
उस रेत से निकालने के प्रयास में
और भीतर धंस जाते हैं हम !
आँखों के डीए टिप-टिप करते हुए /टिमटिमाते हैं |
रेत भरे मुँह से आवाज़ निकालने की
निरर्थक कोशिश करते हैं ---और --
इसी कोशिश के बीच ,
सामने वाली टूटी हवेली के बुर्ज़ पर बैठा बाज
नोच लेता है हमारी आँखें हमारी ---और --
उड़ जाता है हमारी भोगी हुई
आँखों के सच का शर लेकर ---!!
डॉ. प्रणव भारती