अशक्त !!

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क्यों करते हैं हम दंगे ---और

मचाते हैं शोर !

क्यों पीटते हैं अपनी आत्मा को

टकराते हैं सिर दीवारों से --और

पागल ठहाके लगते हैं रात -दिन

किसी अजब तलाश में !

भटकते रहते हैं हम--और --

सामने वाली नीली झील में डुबकी लगाकर

पाते हैं केवल मुट्ठी भर रेत ,जो

लपेट देता है हमें आत्मा तक

एक भुरभुरे सच में----

उस रेत से निकालने के प्रयास में

और भीतर धंस जाते हैं हम !

आँखों के डीए टिप-टिप करते हुए /टिमटिमाते हैं |

रेत भरे मुँह से आवाज़ निकालने की

निरर्थक कोशिश करते हैं ---और --

इसी कोशिश के बीच ,

सामने वाली टूटी हवेली के बुर्ज़ पर बैठा बाज

नोच लेता है हमारी आँखें हमारी ---और --

उड़ जाता है हमारी भोगी हुई

आँखों के सच का शर लेकर ---!!



डॉ. प्रणव भारती

Hindi Poem by Pranava Bharti : 111780034
Pranava Bharti 2 years ago

बहुत धन्यवाद

Pramila Kaushik 2 years ago

बहुत ही सुंदर और सटीक व्यंग्यपूर्ण रचना 👌👌आपको हार्दिक बधाई 🌺🌺

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