जोत जोत में विलीन
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(रचनाकार - प्रमिला कौशिक)
21 जनवरी 2022
जोत से जोत जगाते चलो
प्रेम की गंगा बहाते चलो।
सदियों से सुनते आए थे
दिये से दिये जलाए थे।
दीवाली जितनी आई हैं
दीपमालिका बनाई हैं।
एक दीप जलाकर पहले
उससे सब दीप जलाए हैं।
आज देखो! न जाने किसने
इतनी उल्टी गंगा बहाई है।
अमर जवान ज्योति आज
इंडिया गेट की बुझाई है।
चाटुकार देते दलील, ज्योति
ज्योति में विलीन कराई है।
अरे! किसकी आत्मा यह
परमात्मा में विलीन कराई है ?
किसकी मृत्यु हुई है ? जो
आत्मा प्रभु में समा गई है।
क्या वह इतिहास नहीं है ?
जिसकी हत्या आज हुई है।
किसी को मिटाकर क्या
कोई राज कर पाएगा ?
गर करने की कोशिश की
तो मिट्टी में मिल जाएगा।
तानाशाह बन न जीतोगे
तुम दिल कभी अवाम का।
उठा कर इतिहास देखो
रहा न वो किसी काम का।
तानाशाह न पाएगा कभी
प्रजा का प्यार या सम्मान।
किया जो अत्याचार जन पर
तो वह पाएगा बस अपमान।
युद्धस्थल में नरमुंडों के बीच बैठ
सम्राट अशोक भी पछताए थे।
कोई बचा न बाकी था, यह देख
फूट - फूट कर अश्रु बहाए थे।
मौत का तांडव होगा फिर से
ऐसा घनघोर मातम छाएगा।
किस पर करेगा राज और
किस पर रौब जमाएगा ?
अमर जवान ज्योति, शहीदों के
सम्मान में जो जल रही थी।
आज जब बुझा दिया उसे,
आत्मा शहीदों की सिसक रही थी।
जोत से जोत जलाने की परंपरा
का गला देखो! घोंट दिया है।
जोत को जोत में विलीन करने की
नई परंपरा को जन्म दिया है।
क्या मालूम कल इंडिया गेट को
भी धराशायी कर दिया जाए।
न जाने क्या क्या मिटा दिया जाए
और क्या क्या बना दिया जाए।
एक दिन ऐसा भी आएगा जब
दीवाली जगमग नहीं दमकेगी।
सारे दिये विलीन होंगे एक दिये में
महाराजा की जोत बस चमकेगी।
तब जोत से जोत जलाई नहीं जाएगी
सब एक दिये में विलीन कराई जाएगी।
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