श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय - १ अर्जुन विषादयोग
श्र्लोक १:
धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पाण्डवाश्चैव किम कुर्वत संजय।।

अर्थ :
धृतराष्ट्र बोले : हे संजय! धर्मभूमि कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से इकट्ठे हुए मेरेे और पाण्डु के पुत्रों ने क्या किया?

विस्तृत अर्थ, परिपेक्ष्य के साथ
धृतराष्ट्र महाराज के आसन पर स्थित थे। चाहते तो इस युद्ध को रोकना उनके बसमें था, पूर्णतः बसमें था। शायद वे पाण्डवों की अमाप शक्तियों को भी बखूबी जानते थे। पर जो सिंहासन उनको अपनी नेत्रहीनत्व दशा की वजह से नहीं मिल पाया था, वह उनको अनुज पाण्डु की बीमार अवस्था, वनवास, मृत्यु और उनकी संतानो के बड़ा होने तक, रखवाले के रुप में मिला था।

अब, एक इच्छाओं से भरे सामान्य इन्सान की तरह उनको भी उस सिंहासन पर अपने प्रिय पुत्र दुर्योधन को आरुढ कराने की लालसा हो गई थी, जो सर्वथा अनुचित था। और आज जब दोनों भाईयों के बच्चे और परिवार दो गुट में विभाजित होकर कुरुक्षेत्र के मैदान में युद्ध के लिए सज्ज खडे हैं, तब अपने चर्मचक्षु की मर्यादा ज्ञात होने की वजह से वह अपने सारथि संजय, जिन्हें इस युद्ध को महल परिसर से देखने की दिव्य दृष्टि मिली हुई है, उनसे मैदान का वृतांत जानने की कोशिश कर रहे है।

चमत्कार नहीं, पौराणिक विज्ञान
संजय को मिली दिव्यदृष्टि, आज की हमारी टेलिविज़न व इन्टरनेट सुविधा से जोडी जा सकती है। पुराने समय की जो खोजें भारत की अपनी थीं, समय के साथ उनके प्रमाण नष्ट होने पर हमने उन्हें कल्पनाओं का चित्रण समज लिया। आओं, मिलकर कल को आज से जोडें।

मानवजीवनमें उसका महत्व:
हमें भी जब कोई कुछ रखवाली के लिए देता है तो, उसे हम अपनी जागीर समज कर, उस पर अपना अधिकार कायम करने की भरसक कोशिश में पूरा जीवन व्यतीत कर देते हैं। जैसे की, प्रभु का दिया यह जीवन, हमारे बच्चे, हमारा जीवनसाथी। पहले अनधिकार बहुत कुछ पाने की संभावनाओं में हम संबंध इतने बिगाड़ लेते हैं कि वापस शांति स्थापन के लिए युद्ध की भूमि से ही शांति का मार्ग बनेगा और तभी हमारी कामना पूर्ति होगी। बस, धृतराष्ट्र वही कर रहे थे।

[पूरे ग्रंथ में यही एक, सर्व प्रथम श्र्लोक राजा धृतराष्ट्र के मुख से अवतरित होता है।]

हम आज से भगवदगीता के एक-एक श्र्लोक के अध्यायानुसार और क्रमानुसार पठन और विश्र्लेषण के साथ हर सुबह मिलेंगे।
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अल्पा म. पुरोहित
वडोदरा


સર્વે સભ્યોને શુભ પ્રભાત🙏


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