#पतंग
वो उम्र कमसिन थी

उड़ा करती पतंग सी।

आकाश की ऊंचाई में

जाने को बेताब रहती।

तेज़ हवाओं के कानो में 

धीरे से कुछ कहना चाहती।

रंगीन सपने आंखों में धारे।

चलते किसी प्यार के सहारे।

जो डोर को थामकर रखता

बन जाता एक मीठा रिश्ता।

लेकिन सब ये आभास 

हरदम रहता नहीं पास।

जब पतंग कट जाती है

डोर हाथ से छूट जाती है।

वैसे ही जीवन की पतंग भी

उड़ती नहीं पहली उमंग सी।

हो चुकी है वो बेरंग की।

छूटते बिछड़ते संग की

डोर है अब ऊपर वाले के हाथ।

जाने कब छूट जाए साथ। 

डॉअमृता शुक्ला

Hindi Poem by Amrita shukla : 111777374
Amrita shukla 2 years ago

शुक्रिया

shekhar kharadi Idriya 2 years ago

वाह क्या बात है बहुत खूब

Amrita shukla 2 years ago

शुक्रिया

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