एक त्रिशंकु सिलसिला
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बेतरतीब सी उम्र
न जाने किस तलाश में
भटककर रह गई --
एक सिलसिला बेतरतीबी का
तरतीबवार चलता रहा
तमाम उम्र --
इस मोड़से उस मोड़ तक
उस मोड़ से अंतहीन रास्तों पर
जूझते हुए
सिमटते हुए
बेतरतीब उम्र का वो तरतीबवार हिस्सा
आज भी भटक रहा है
लटक रहा है -----
(अपने काव्य-संग्रह 'एक त्रिशंकु सिलसिला'से )
डॉ. प्रणव भारती