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जीवन की आपाधापी में,
अब कुछ पल ठहर जरा,
रोजी रोटी की तलाश में,
गुज़र गया ताउम्र यहाँ।
कभी तो खुशियों की चादर बुन जरा,
खुद की खातिर भी जी ले जरा।
बचपन को न जी पाया ,
ना बालपन का आनंद लिया।
पल-पल गुज़रा जीवन,
यौवन भी दस्तक दे निकल गया।
परिवार-बच्चों के कशमकश में,
बुढ़ापे के आना मुमकिन हुआ।
हाथ, पैर और आँखें कमज़ोर,
तन-मन अन्ततः व्यथित हुआ।
पर दिल है अब भी यह कहता,
खुद की खातिर भी कभी
'बालपन' को दे आवाज जरा।
अल्हड़ बचपन न ठहरा है कभी,
न ठहरेगा पल भर यहाँ।
थाम हाथ संगी साथी का,
प्रातःकालीन सफर पर निकल जरा।
उगते सूरज,मंद पवन-पक्षी के कलरव संग,
बाग बगीचे व तितलियों के संग,
नदियों की कल-कल सुन जरा।
कागज की कश्ती, गिल्ली डंडे,
ले कंचे का आनंद व थाम पतंग की डोर जरा।
पल-पल को ले थाम यहाँ,
लम्हा-लम्हा है सरक रहा,
जीवन है सफर मंजिल कहाँ?
मौज मस्ती के कई रंग यहाँ।
जीवन को देकर अल्पविराम,
शौक इच्छाओं में अब रंग भर जरा।