पितर-पक्ष में चल पड़े ....
पितर-पक्ष में चल पड़े , पुरखे घर की ओर ।
आतुर सबको देखते, नापें दिल के छोर ।
जल तर्पण अब कर रहे, मचा रहे हैं शोर।
मात-पिता भूखे रहे, नहीं मिली कागोर।।
परलोकी जब हो गए, प्रस्तुत करते जान।
जीवित रहते कब दिया, बूढ़ों को सम्मान।
जब तक वे जिन्दा रहे, रखा न अपने साथ ।
जब अर्थी पर सो गए, पीट रहे थे माथ।।
स्वर्ग लोक से हंँस रहे, कभी न समझी पीर।
पिंडदान करते फिरें, गया-त्रिवेणी तीर।।
रूप बदल कागा नहीं, अब आते हैं भोर।
श्राद्ध-पक्ष में बन रही, उनको अब कागोर ।
गौ कागा दिखते नहीं, सभी गए हैं भाग।
पंछी सारे उड़ गए, सुने न कलरव राग ।।
प्रेम नेह सम्मान के, छूट रहे नित छोर ।
निज स्वार्थों में लिप्त हैं, चलें नेह की ओर।।
सुख-दुख में सब एक हों, थामें पर-दुख डोर।
शहरी संस्कृति ने डसा, बढे़ गाँव की ओर।
मनोज कुमार शुक्ल " मनोज "