रातभर बादलों के भँवर में रहा।
रातभर कोई आशिक़ सफ़र में रहा।

एक चेहरा कि थीं जिसपे रुसवाईयाँ
ज़िंदगी भर हमारी नज़र में रहा।

जाम तो चढ़ के कबका उतर भी गया,
वस्ल के आँसुओं के असर में रहा।

हसरती आँखों से देखते वो रहे,
ना मैं रुख़सत हुआ ना ही घर में रहा।

घड़ी दो घड़ी बैठकर रो सकें
कोई ऐसा ना कंधा शहर में रहा।

घर में फ़ूलों की ख़ुश्बू बराबर रही
नाम जबतक तुम्हारा ज़िकर में रहा।

रातभर बादलों के भँवर में रहा।
रातभर कोई आशिक़ सफ़र में रहा।

-Satyadeep Trivedi

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