​इस दीर्घ कविता के पिछले भाग अर्थात् तेरहवें भाग में अभिमन्यु के गलत तरीके से किये गए वध में जयद्रथ द्वारा निभाई गई महत्वपूर्ण भूमिका और तदुपरांत केशव और अर्जुन द्वारा अभिमन्यु की मृत्यु का प्रतिशोध लेने के लिए रचे गए प्रपंच के बारे में चर्चा की गई थी। कविता के वर्तमान प्रकरण अर्थात् चौदहवें भाग में देखिए कैसे प्रतिशोध की भावना से वशीभूत होकर अर्जुन ने जयद्रथ का वध इस तरह से किया कि उसका सर धड़ से अलग होकर उसके तपस्वी पिता की गोद में गिरा और उसके पिता का सर टुकड़ों में विभक्त हो गया। प्रतिशोध की भवना से ग्रस्त होकर अगर अर्जुन जयद्रथ के निर्दोष तपस्वी पिता का वध करने में कोई भी संकोच नहीं करता , तो फिर प्रतिशोध की उसी अग्नि में दहकते हुए अश्वत्थामा से जो कुछ भी दुष्कृत्य रचे गए , भला वो अधर्म कैसे हो सकते थे? प्रस्तुत है दीर्घ कविता "दुर्योधन कब मिट पाया " का चौदहवाँ भाग। 
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निरपराध थे पिता जयद्रथ के पर  वाण चलाता था,
ध्यान मग्न थे परम तपस्वी पर संधान लगाता था।
प्रभुलीन के चरणों में गिरा कटा हुआ जयद्रथ का सिर ,
देख पुत्र का शीर्ष विक्षेपण पिता हुए थे अति अधीर।
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और भाग्य का खेला ऐसा मस्तक फटा तात का ऐसे,
खरबूजे का फल हाथ से भू पर गिरा हुआ हो जैसे।
छाल प्रपंच जग जाहिर अर्जुन केशव से बल पाता था , 
पूर्ण हुआ प्रतिशोध मान कर चित में मान सजाता था।
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गर भ्राता का ह्रदय फाड़ना कृत्य नहीं बुरा होता, 
नरपशु भीम का प्रति शोध रक्त पीकर हीं पूरा होता।
चिर प्रतिशोध की अग्नि जो पांचाली में थी धधक रही ,
रक्त पिपासु चित उसका था शोला बनके भड़क रही। 
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ऐसी ज्वाला भड़क रही जबतक ना चीत्कार हुआ, 
दु:शासन का रक्त लगाकर जबतक ना श्रृंगार हुआ।
तबतक केश खुले रखकर शोला बनकर जलती थी ,
यदि धर्म था अगन चित में ले करके जो फलती थी।
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दु:शासन उर रक्त हरने में, जयद्रथ जनक के वधने में ,
केशव अर्जुन ना कुकर्मी गर छल प्रपंच के रचने में।
तो  कैसा  अधर्म  रचा  मैंने वो धर्म स्वीकार किया। ,  
प्रतिशोध की वो अग्नि हीं निज चित्त अंगीकार किया?
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गर प्रतिशोध हीं ले लेने का मतलब धर्म विजय होता ,
चाहे कैसे भी ले लो पर धर्म पुण्य ना क्षय होता। 
गर वैसा दुष्कर्म रचाकर पांडव विजयी कहलाते,
तो किस मुँह से कपटी सारे मुझको कपटी कह पाते?
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कविता के अगले भाग अर्थात् पन्द्रहवें भाग में देखिए अश्वत्थामा आगे बताता है कि अर्जुन ने अपने शिष्य सात्यकि के प्राण बचाने के लिए भूरिश्रवा का वध कैसे बिना चेतावनी दिए कर दिया।
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अजय अमिताभ सुमन: सर्वाधिकार सुरक्षित

Hindi Poem by Ajay Amitabh Suman : 111735124

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