अनकही

न जाने क्या हुआ मुझको , गिला - शिकवा नहीं कोई
ये दुनिया कितनी सुंदर है , कि मैं रहती हूं कुछ खोई
मुझे लगते हैं सब प्यारे , क्यूं सब लगने लगे न्यारे
ज़माना तू बता मुझको , किया क्या तुमने कुछ इशारे
अकेले में है मन गाता , बदन सिहरन से भर जाता
जाने क्या सोच कर हंसती , सोचकर भी न याद आता
निकल घर से चलूं जब मैं , कदम बहके न जाने क्यों
खुशी इतनी छलकती है , कि सपने सच हुये हैं ज्यों
कोई समझाए तो मुझको , हुआ कोई रोग तो ये नहीं
कोई इसकी दवा भी है , या एक आफ़त है अनकही

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Hindi Poem by सुधाकर मिश्र ” सरस ” : 111724423

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