कुछ सपने भी थे, कुछ अपने भी थे
इन दुविधा में अकेली जीती रही ।
कुछ बेगाने भी थे, कुछ दिवाने भी थे
इन चुनौती में तन्हा मरती रही ।
कुछ जुबानी भी थे, कुछ जज़्बाती भी थे
इन अल्फ़ाज़ों में गहरी ढ़लती रही ।
कुछ दिखावे भी थे, कुछ नफ़रतें भी थे
इस मतलबी दुनिया में इतनी छलती रही ।
कुछ अनचाहे भी थे, कुछ अनदेखे भी थे
इन रिश्तों के सौदेबाज़ी में भूलती रही ।
-© शेखर खराड़ी (६/५/२०२१)