आज गाँव के पनघट की गोरियां याद आ गईं।
पगडंडी पर गीत गातीं छोरियां याद आ गईं।।
शहर में तो कुछ पता ही नहीं चलता त्यौहारों का
मस्ती और प्यार में रंगी वो बचपन की होलियां याद आ गईं।
जहाँ रंग से कम अपनेपन से ज्यादा रंगते थे चेहरे।
गले मिलने से हो जाते थे आपसी रिश्ते और गहरे।
भंग मिठाई खाकर नाचती थी हुरियारों की टोली
रंग देते थे जमीं और आसमां भी गाँव के भोले लोग जो ठहरे।।
स्वरचित
जमीला खातून