शीर्षक- माँ
युग बदले, जीवन बदला,
बदला नहीं तो माँ के अस्तित्व का सार।
माँ आदि, माँ अनंत,
जो कराती संतान को भवसागर पार।
प्रभु ने भी सृष्टि सृजन हेतु जिसे चुना,
अधर्म के विनाश हेतु,
माँ के नत शिर हो लिए युगों अवतार।
माँ शब्द में एक ऐसी मंत्रशक्ति,
जिसके जप से हो जाता कल्याण।
माँ ही तो है हमारे सर्वस्व की पहचान।
माधव ने लिया अवतार,
बड़भागी बन पाया दो माताओं का प्यार।
एक माँ से पाया निश्छल प्रेम,
दूजी से सीखा त्याग, समर्पण के भाव।
संतान के शुभ के लिए जलते
अंगारों पर चल सकती है माँ
स्वयं संजीवनी बन संतान का
वृहत घाव भर देती है माँ ।
श्रीराम ने लिया अवतार,
पाया तीन माताओं का प्यार।
अपनी वचनबद्धता से सिद्ध किया,
माँ के कुटिल वचन में भी
संतान का भला निहित होता है।
माँ के मौन में भी अलौकिक संवाद छिपा होता है।
अपनी औलाद के खातिर इक माँ
कितने दु:ख उठाती हैं।
सीता माता की जीवनी यही दर्शाती है।
मलमल पर पांव धरने वाली
शूल पथ पर चलती जाती है।
अपने संतान के भविष्य के लिए
हर पीड़ा गले लगाती है।
अदम्य साहसी,करूणामयी,भयहारिणी माँ
जो कराती संतान को प्रेमामृत पान।
विनायक का मस्तक कटा,
क्रोधित हो जगजननी ही करने चली सृष्टि का संहार।
विपदा जब निज संतान पर आए
माँ के क्रोध को थामना दुष्कर हो जाए।
माँ के होते हुए उसके बालक का
कोई बाल भी बांका न कर पाए।
संतान के समक्ष अपना सर्वस्व
भूल जाती है माँ ।
प्रथम गुरु बन जीवन के पाठ पढ़ाती है माँ ।
स्वरचित एवं मौलिक
मानसी शर्मा