बेहरो की महफ़िलमें एक गूंगा गा रहा,
मंच से शेखचिल्ली के सपने दिखा रहा।

उड़ते रहे हो तुम आज निजी जेट प्लेनमें,
तुम्हारे शोखका खर्च में कंधे पे उठा रहा।

लूट कर चले गए वो सात समंदर पार जो,
उन सभीका कर्ज देश ही तो चुका रहा।

आज कलममें आग बिस्मिलकी बुझ गई,
मृत हो ते लोकतंत्र को लिखके उठा रहा।

बारूदों सा धमाका करती भाषा छूट गई,
चोली के पीछे क्या है आज युवा गा रहा।

है जो गुलाम बरसो से जाती और पक्षमें,
उस बुजदील को मनोज क्यो जगा रहा।

मनोज संतोकी मानस

-Manoj Santoki Manas

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