ख्वाहिशें

संपन्नता किसे कहते हैं? शायद उसे ही जो उनके पास था। अच्छी नौकरी, बढ़िया घर, फिर आराम से रिटायर्मेंट, बिटिया अपने पैरों पर खड़ी और उसकी अच्छे घर में शादी, लड़का भी पढ़ लिखकर विदेश में सेटल हो गया था। कुछ था जो उन्हें यहीं बांधे हुए था अपनी मिट्टी से जोड़े हुए.. किसी की यादें उन्हें अपना देश छोड़ने नहीं दे रही थी या यूं कहें छोड़ने के लिए किसी ने जिद भी नहीं की। अकेले रहना पहले कभी उतना ना खला उन्हें जब तक पत्नि की तस्वीरों को घण्टों निहारते समय कट जाता था। आँखों की रोशनी ने साथ छोड़ना शुरू किया तो बेटे ने विदेश से फटाफट आकर आँखों का ऑपरेशन करा दिया। अब कुछ दिन के अंधेरे के बाद रोशनी फिर दस्तक देने वाली थी। सब कुछ ठीक चल रहा था।
फ़िर भी कुछ तो था जो खल रहा था। श्रीमती जी के जाने के बाद जैसे जिंदगी ने मुँह मोड़ लिया हो। शरीर के बुढ़ापे से ज्यादा मन का बुढ़ापा तंग कर रहा था। उस दिन खिड़की पर उदास खड़े बाहर से आ रही हवा को चेहरे पर बस महसूस कर पा रहे थे।

चेहरे की परेशानी देख कर बेटे ने पूछा जो छुट्टियों में पिता के आँखों का ऑपरेशन कराने घर आया हुआ था,
" पापा! क्या हुआ परेशान लग रहे हैं?"

"बेटा! इन आंखो के ऑपरेशन ने तो अंधा बना के रख दिया है, अब मैं सुबह-सुबह टहलने भी नहीं जा पा रहा हूँ, समझ ही नहीं आ रहा है कि सुबह की शुरुआत अगर ऐसे हुई तो बाकी पूरा दिन कैसे काटूं?"
" डोंट वरी पापा!! मैंने सारा इंतजाम किया है.. टहलने के लिए मैं देखिए क्या लाया हूँ.. ये सफेद छड़ी ले कर जाएं आप, कोई तकलीफ नहीं होगी।"
पिता ने छड़ी लेकर उसे प्यार से सहलाया और बाहर चले आए। टहलते हुए मन मे सोचा " बेटा! काश चलते-चलते छड़ी के बदले, तुम्हारी उँगलियों का स्पर्श.. तुम्हारा साथ मिल जाता ग़र.. जिंदगी थोड़ी सी और आसान हो जाती "
पर वो अनकहा.. अनकहा ही रह गया। संतप्त मन के ताप से गर्म हवायें उठ कर फुटपाथ से सूखे पत्तों को किनारे लगा रही थी। वो राह उन्हें अकेले ही तय करने थी।

©सुषमा तिवारी

Hindi Story by Sushma Tiwari : 111665775
Hasin Ehsas 3 years ago

आप बहुत ही अच्छा लिखते हो..

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