हाँ, यहीं से निकलती है गंगा
यहीं पर हिमालय पिघलता है,
यहीं बने हैं नदियों पर तीर्थ
यहीं छूटे हैं गुलामी के घोंसले।
हाँ, यहीं रचा गया है रामायण
यहीं लिखा गया है महाभारत,
यहीं कहा गया है चरैवेति, चरैवेति
यहीं खड़ा है गुलामी का वट वृक्ष।
हाँ ,यहीं आती है सुनहरी धूप
यहीं बनती है मीठी भूख,
यहीं है "सर्वे सुखिनः सन्तु" की पिपासा
यहीं काटता है गुलामी का कीट।
हाँ, यहीं गंगा बहती है
यहीं दीपक जलते हैं,
यहीं रावण मरता है
यहीं गुलामी गायी जाती है।
हाँ, यहीं झंडे उठते हैं
यहीं नेता बनते हैं,
यहीं सत्यनारायण सुनते हैं
यहीं गुलामी अटकी है।
हाँ, यहीं भारत रहता है
यहीं पुण्य हम पाते हैं,
यहीं शिव को मानते हैं
यहीं गुलाम जटायें झूलती हैं।
* महेश रौतेला